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काव्यहेतु

                मनुष्य प्रायः जो भी कार्य करता है, उसके पीछे कोई न कोई हेतु छिपा होता है। हेतु का तात्पर्य यहां कारण से है। काव्य सृजन के पीछे भी कोई न कोई हेतु होता है। प्रयोजन और हेतु में अंतर होता है। हेतु बीज स्वरूप में होते है और प्रयोजन फल स्वरूप में । अर्थात काव्य निर्मिती के पीछे हेतु को ही प्रमुख तत्व के रूप में देखा जा सकता है। वे कौन से हेतु अथवा कारण हैं कि जिनकी प्रेरणा से कवि या लेखक नई सृष्टि की रचना करता है ? भारतीय एवं पाश्चात्य आचार्यों ने काव्यहेतु पर समग्र रूप से विवेचन किया है। जिसे हम निम्न अनुसार देख सकते है।

संस्कृत आचार्यों के मत -
              संस्कृत में काव्य रचना अत्यंत प्राचीन काल से होने लगी थी। पर काव्य हेतु के विश्लेषण का सर्वप्रथम प्रयास आचार्य भामह का माना जाता है।
               आचार्य भामह ने प्रतिभा को प्रमुख काव्य हेतु मानते हुए कहा है, कि कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति ही काव्य रचना कर पाता है। काव्य सृजन के लिए प्रतिभा आवश्यक है। प्रतिभा एक शक्ति स्वरूप है, जो कवि में बीज स्वरूप में विद्यमान होती है। भामह के अनुसार काव्य और शास्त्र के अनवरत अध्ययन से व्युत्पन्न शक्ति भी काव्य हेतु है। अर्थात भामह व्युत्पत्ति और अभ्यास को महत्वपूर्ण मानते है। व्युत्पत्ति का तात्पर्य लोक शास्त्र तथा काव्य का निरीक्षण से है; जिससे ज्ञान प्राप्त होता है; अनुभव, योग्यता प्राप्त होती है। गुरू का सान्निध्य प्राप्त कर काव्यरचना का अभ्यास होता है। गुरु के मार्गदर्शन और संशोधन से काव्यरचना में निखार आता है।
               आचार्य दंडी ने केवल प्रतिभा को ही काव्य हेतु के रूप में स्वीकार नहीं किया,बल्कि व्युत्पत्ति और अभ्यास को भी अनिवार्य माना है। दंडी प्रतिभा को जन्मजात और आवश्यक गुणों से युक्त मानते है। पर दंडी के अनुसार प्रतिभा के अभाव में व्युत्पत्ति एवं अभ्यास द्वारा काव्य सृजन हो सकता है। सरस्वती उपासना एवं अनवरत प्रयत्नों द्वारा काव्य सृजन संभव है।
               आचार्य वामन ने दंडी और भामह के मतों को सामने रखकर ही अपना मत निर्धारित किया है। अध्ययन, मनन, प्रयत्न, अभ्यास, काव्य कला के मर्मज्ञों से ज्ञान प्राप्त करना, अपनी ही रचनाओं की आलोचना, समीक्षा करना आदि को काव्य हेतु के रूप में स्वीकारा है। वामन काव्य हेतु को काव्यांग कहते है और क्रमशः लोक, विधा, प्रकीर्ण को काव्यांग मानते है। प्रकीर्ण के अंतर्गत वे छः तत्वों को स्वीकारते है।
               आचार्य रुद्रट ने भी उपरोक्त काव्य हेतुओं को ही माना है। उनके अनुसार प्रतिभा के बल पर कवि में शब्द एवं उनके अर्थ के अवलोकन ही क्षमता आती है। व्युत्पत्ति के बल पर दोषपरिहार और काव्य तत्वों की उपादान शक्ति प्राप्त होती है, तो अभ्यास से काव्य सृजन में निखार आता है। रुद्रट प्रतिभा को ही शक्ति कहते है। आचार्य रुद्रट प्रतिभा के दो भेद मानते है - 1. सहजा 2. उत्पाद्या। जन्मजात प्रतिभा सहजा है, तो अध्ययन-अभ्यास से प्राप्त प्रतिभा उत्पाद्या है।
               आचार्य आनंदवर्धन के  विवेचन में काव्य हेतुओं की छाया देखी जा सकती है। इन्होंने दो काव्य हेतु स्वीकार किए है- 1. प्रतिभा 2. व्युत्पत्ति। इनका स्पष्ट मत है कि प्रतिभा कवि के कर्म-काव्य की व्युत्पत्ति आदि के अभावजन्य दोषों को भी छिपा लेती है।
                आचार्य राजशेखर प्रतिभा और शक्ति को एक ही स्वीकार न कर शक्ति को एक अलग तत्व के रूप में महत्व देते है। बुद्धि के भी वे स्मृति, मति और प्रज्ञा यह तीन भेद मानते है।  इनके अनुसार कवियों में प्रतिभा एक तो जन्मजात होती है और दूसरी आहार्या। कवियों के भी दो प्रकार उन्होंने किए है। एक सहज बुद्धिवालें और दूसरे आचार्य बुद्धिवाले। राजशेखर प्रतिभा के दो भेद मानते है।
                       1. कारयित्री प्रतिभा - कवि इस प्रतिभा से काव्य सर्जन करते है। अर्थात यह प्रतिभा कवि में होती है।
                    2. भावयित्री प्रतिभा - यह सहृदय में होती है। जिसके द्वारा सहृदय काव्य में छिपे भावार्थ को ग्रहण करते है।
               आचार्य मम्मट ने शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास को काव्य हेतु माना है। काव्य रचना की शक्ति में लोक शास्त्र आदि का सम्य्क ज्ञान, काव्य मर्मज्ञों से प्राप्त शिक्षा, उसका अनवरत अभ्यास आदि को मूल कारण माना है। इनके अनुसार संस्कारगत शक्ति ही काव्यत्व का मूल बीज रूप है। जिसके अभाव में काव्य निम्न कोटि का बन सकता है। अध्ययन-मनन से प्राप्त ज्ञान व्युत्पत्ति है और निरंतर उत्कृष्ट काव्य रचना के लिए प्रयत्नशील रहना अभ्यास है।
                  परवर्ती आचार्यों में केशव मिश्र, हेमचंद्र, पंडितराज जगन्नाथ भी आचार्य भामह की तरह ही प्रतिभा को प्रमुख काव्य हेतु माना है। हेमचंद्र प्रतिभा के सहजा और औपाधिकी यह भेद मानते है। सहजा जन्मजात होती है, तो औपाधिकी कई प्रयत्नों से सिद्ध या प्राप्त होती है। आचार्य वाग्भट्ट भी प्रतिभा को काव्य का मूल हेतु तथा शेष को सहायक-संस्कारक हेतु मानते है। आचार्य जयदेव प्रतिभा को काव्य रचना का मुख्य हेतु और व्युत्पत्ति, अभ्यास को उसका सहायक हेतु मानते है।
                 इस विवेचन से तो स्पष्ट है कि काव्य सृजन के लिए संस्कृत के इन आचार्यों ने प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास इन तीनों के स्वरूप का विवेचन किया है। जिसे हम निम्नानुसार देख सकते है।

प्रतिभा -
              काव्य हेतुओं में प्रतिभा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। कुछ लोग प्रतिभा को सहज मानते है। मम्मट ने इसे शक्ति, बीज स्वरूप माना है। अभिनव गुप्त ने अपूर्व वस्तुओं के निर्माण की क्षमता रखनेवाली शक्ति को प्रतिभा कहा है। इस प्रतिभा को नवोन्मेषशलिनी भी कहा गया है। अर्थात वह नवीनता की आग्रही होती है। नयी भावनाओं की उद्भावना इसी के द्वारा होती है। वाग्भट्ट और हेमचंद्र इस नवनवोन्मेषशाली प्रज्ञा को प्रतिभा कहते है। तो आचार्य अभिनवगुप्त अपूर्व वस्तुनिर्माणक्षम प्रज्ञा को प्रतिभा कहते है।

व्युत्पत्ति
                मम्मट व्युत्पत्ति को निपुणता कहते है। 'लोकशास्त्र काव्याद्यााविक्षणाव्' अर्थात यह संसार के निरीक्षण से, नया काव्य और शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त होती है। कुछ आचार्योंंने व्युत्पत्ति का अर्थ बहुलता से लिया है। बहुलता का तात्पर्य व्यापक ज्ञान से है। इनमें शास्त्रों का निरीक्षण, व्याकरण का अध्ययन, संसार का सम्यक ज्ञान अपेक्षित है। दंडी व्युत्पत्ति को श्रुत कहते है। लोक निरीक्षण सेे तात्पर्य चलाचल सृष्टि के उपादानों तथा क्रियाकलापों से है। शास्त्रों के अंतर्गत सामाजिक, धार्मिक तथा कला विषयक शास्त्रों का अध्ययन तथा काव्यादि के अंतर्गत काव्य तथा अन्य कलाओं का अध्ययन आता हे।

अभ्यास
               काव्य रचना का पुनः पुनः प्रयास अभ्यास कहलाता है। निरंतर अभ्यास काव्य  रचना के  शिल्पगत सौष्ठव में वृद्धि  करता है। अभ्यास  काव्य के बाह्यागों  को सुघड़, आकर्षक  तथा निर्दोष बनाने में सहायक होता है।
             अर्थात कह सकते हैं कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति और निपुणता का मणिकांचन संयोग काव्य हेतु में सहायक होता है।

आधुनिक भारतीय विद्वानों के मत
                  हिंदी के आचार्यों ने काव्यहेतुओं के वर्णन में कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। वे प्राय: संस्कृत और पाश्चात्य आचार्यों के मतों के घेरे में ही सीमित रहे हैं। रीति काल के आचार्यों ने संस्कृत काव्यशास्त्र को आधार बनाकर अपनी मान्यताएं दी है। आचार्य भिखारीदास के अनुसार प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास ही काव्य हेतु है। इन तीनों का सहयोग काव्य को 'मन रोचक' बना देता है।
                आधुनिक हिंदी के विद्वानों में सर्वप्रथम मत डॉ. भगीरथ मिश्र का लिया जा सकता है। काव्य हेतु के पीछे वे दो कारणों को स्वीकार करते हैं - निमित्त कारण और उपादान कारण। इन्हीं को प्रेरक कारण भी कहा गया है। वे कहते है - "कवि की सामाजिक, पारिवारिक या वैयक्तिक परिस्थितियां तो उसकी प्रकृति है। जिससे उसे काव्यरचना की प्रेरणा प्राप्त होती है। जिसके अभाव में या तो काव्यरचना बिल्कुल नहीं होती अथवा होती भी है तो किसी अन्य रूप में।"
                उपादान कारण के स्वरूप पर वे कहते है - "लोकशास्त्र का व्यापक ज्ञान सत्संग, श्रवण, मनन और अभ्यास के रूप में होता है। "
               डॉ.गोविन्द त्रिगुणायत मनुष्य की मननशीलता को प्रमुख काव्य हेतु मानते है।  उनके अनुसार - "मननशील मानव मन जब सांसारिक वस्तुओं के संपर्क में आता है, तब व्यक्तिगत प्रकृति के अनुसार कुछ वस्तुओं को देखकर उसमें तन्मय हो जाता है।  कुछ वस्तुओं के प्रति उसके हृदय में जिज्ञासा उत्पन होती हैं और कुछ के प्रति वह भयभीत होता है।  तन्मयप्रधान मननशीलता ही साहित्य की जननी है। "
                   डॉ.नगेंद्र भी प्रतिभा, व्युत्पति और अभ्यास के साथ आत्माभिव्यक्ति को काव्य हेतु के रूप में स्वीकारते है।

पाश्यात्य विद्वानों के मत - 
                 पाश्यात्य साहित्य एवं काव्यशास्त्र में कहावत प्रसिद्ध है - " Poets are born and not made." अर्थात कवि उत्पन्न होते है, बनाये नहीं जाते। पाश्यात्य विद्वानों ने भी किसी न किसी रूप में प्रतिभा, व्युत्पति और अभ्यास को ही साहित्य हेतु स्वीकार किया है।
                  इस संबंध में सुकरांत ने अपने मत रखते हुए स्पष्ट किया है - "कविगण कविता इसलिए नहीं रचते कि वे बुद्धिमान हुआ करते है।  वे इस कारण कविता रचते है कि उनमें एक विशेष प्रकृति अथवा प्रतिभा रहा करती है।  जिससे उन्हें उत्साह मिला करता है।
                   प्लेटो कवि हृदय का होते हुए भी उसे काव्य और कला के प्रति कोई विशेष सम्मान नहीं था।  इसी कारण उसने काव्य की उत्पत्ति मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति में स्वीकार की है।
               अरस्तु प्लेटो के दैवी प्रेरणा वाले सिद्धांतों को अस्वीकार कर काव्य प्रवृत्ति को मानव स्वभाव के साथ बद्ध करते है। अनुकरण की प्रवृत्ति को वह काव्य का मुख्य हेतु मानते हैं और संगीत, लय आदि को इसके उपक्रम।
                  नाट्यशास्त्र वादी जॉन ड्राइडन तथा जॉन्सन ने प्रतिभा को अधिक महत्व दिया है। स्वच्छंदतावादी विद्वानों ने कल्पना तथा भाव को अधिक महत्व दिया है।
               लोकमंगल वादी विद्वानों ने ज्ञान और विवेक पर बल दिया है। कलावादी रचनाकार प्रतिभा को निरंकुश काव्य हेतु स्वीकार करते है।
                मार्क्सवादी मान्यता के अनुसार शोषण से मुक्ति की कामना साहित्य की वृत्ति है। मनोविज्ञानवादी फ्रायड कला को काम से प्रेरित मानते है। उनके अनुसार काव्य सृजन से कामवासना तृप्त होती है। क्रोचे आत्माभिव्यक्ति को काव्य सृजन की प्रेरणा मानते है। कॉलरिज कवि के लिए प्रतिभा को अनिवार्य मानते है।
              इस तरह भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों द्वारा बताए गए काव्य हेतुओं को देखा जा सकता है

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