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रस के कुछ प्रकार

              साहित्यशास्त्र में विद्वानों में रसों की संख्या को लेकर मतभेद रहे है।  वैसे रसों  की संख्या का निर्धारण स्थायी भावों की संख्या पर होता हैं।  क्योंकि यही स्थायी भाव आगे चलकर रस की स्थिती को प्राप्त होते है।  आचार्य भरतमुनि ने रसों की कुल संख्या तथा स्थायी भावों की संख्या आठ मानी है।  आगे चलकर स्थायी भाव और साथ ही रसों  की संख्या बढती गई। इनमें से कुछ रस निम्नानुसार है -
1. श्रृंगार रस -
                   नायक और नायिका के पारस्पारिक परिभाव को रति कहते है। यही रतिभाव जब विभाव, संचारी भाव आदि के द्वारा रसावस्था तक पहुंचकर आस्वाद योग्य बनता है, तो श्रृंगार रस कहलाता है। सारांशतः विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से अभिव्यक्त दम्पति का रतिभाव श्रृंगार रस कहलाता है।
इसके रसावयव निम्नानुसार है -
  • स्थायीभाव - रति अथवा प्रेम
  • आश्रय - नायक अथवा नायिका
  • आलबंन विभाव - नायक या नायिका की प्रेमचेष्टाएं
  • उद्दीपन विभाव - वेशभूषा, मधूर भाषण, स्मित हास्य
  • बाह्य उद्दीपन - चांदणी रात, प्रसन्न वातावरण
  • अनुभाव- कटाक्ष,स्मित हास्य,आलिंगन, अश्रु
  • संचारी भाव - सभी 33 भाव
                    नायक - नायिका के मिलने -बिछुडने के कारण उनकी मानसिक स्थिति में परिवर्तन हो जाता हैं इसलिए श्रृंगार रस के ओर दो उपभेद माने गए है। 1. संयोग श्रृंगार 2.वियोग श्रृंगार
                    अन्य सभी रसों की तुलना में श्रृंगार रस को विशेष सम्मान मिला है। इसके कुछ कारण भी है। जैसे - प्रेम का महत्व जीवन में असाधारण ही रहा है। इसका क्षेत्र व्यापक है। बालक, वृद्ध, युवा आदि उम्र की सीमाओं के परे जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण इन सभी की संकीर्णता को तोडकर प्रेम सबको प्रभावित करता है। इसलिए श्रृंगार को रसराज कहा गया है।

2 . करुण रस
                  विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उत्पन्न शोक नामक मनोविकार करुण रस कहलाता हैं। इष्ट की हानी अथवा चिर वियोग आदि से जहां शोक का विस्तार हों, वहां करुण रस होता हे।
इसके रसावयव निम्न अनुसार है।
  • स्थायीभाव - शोक
  • आश्रय - जिसके मन में शोक उत्पन्न हुआ हो, वह
  • आलबंन विभाव - प्रिय व्यक्ति या इष्ट की ऐश्वर्य हानी
  • उद्दीपन विभाव - दुखपूर्ण तथा अस्वस्थ दशा का वर्णन या श्रवण
  • अनुभाव- रोना, विलाप करना, भाग्य या दैव को कोसना,शरीर शिथिल हो जाना
  • संचारी भाव - ग्लानी, स्मृति, व्याधी, मरण या मृत्यु
                वियोग श्रृंगार और करुण रस के बाहय स्वरूप में अत्यांधिक साम्य है। परंतु दोनोें में महत्वपूर्ण अंतर यह है कि वियोग श्रृंगार सुखात्मक होता हैं। परंतु करुण रस दुखात्मक होता है। वियोग श्रृंगार में प्रिय के मिलन की आस शेष होती है। जब की करुण रस में यह आशा बिल्कुल नहीं होती। करुण रस अत्यंत प्रभावी होता है। दुसरों को द्रवित करने की शक्ति करुण रस में होती है। 

3. वीर रस
               विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उत्पन्न उत्साह मनोविकार वीर रस कहलाता हैं। यह रस प्रधान रसों में से एक हैं। किसी शत्रु का उत्कर्ष, ललकार, धर्म की अधोगति, दीन -दुबलों पर अत्याचार आदि बातों को देखकर उनके निवारणर्थ मन में पुरूषार्थ दिखाने का उत्साह पैदा होता है, वहां वीर रस की उत्पत्ति होती है।
इसके रसावयव निम्नानुसार है -
  • स्थायीभाव - उत्साह
  • आश्रय - जिसमें उत्साह है, वह वीर
  • आलबंन विभाव - शत्रु
  • उद्उीपन विभाव - शत्रु की चेष्टाएं, सैन्य, युद्ध का वातावरण, रणवाद्यों की आवाज
  • अनुभाव- आंखों का लाला होना, भुजाओं का या अंगों का संचारण, सैन्य को पे्ररित करना आदि
  • संचारी भाव - ईष्या, गर्व, उग्रता, रोमांच, स्मृति
आचार्य भरतमुनि ने वीर रस के तीन उपभेद किए है - 1.दानवीर 2.धर्मवीर 3 युद्धवीर। कुछ विद्वान दयावीर, सत्यवीर, पांडित्यवीर आदि को भी वीर रसों के भेद मानते है।

4. हास्य रस 
                विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उत्पन्न हास्य नामक मनोविकार हास्य रस कहलाता हैं। जहाँ हास्य का विस्तार होता है। किसी विलक्षण वस्तु या स्थिति को देखने से हास्य रस की उत्पत्ति होती है।
इसके रसावयव निम्नानुसार है -
  • स्थायीभाव - हास्य 
  • आश्रय - जिसके मन में हास्य उत्पन्न होता है, वह 
  • आलबंन विभाव - विकृत रूप या आकार, विकृत  वेशभूषा - केशभूषा, विकृत कथन  
  • उद्उीपन विभाव - विचित्र कलाएँ 
  • अनुभाव- आंखों और मुख का विकसित होना, खिलखिलाना आदि
  • संचारी भाव - चपलता, हर्ष-गर्व आदि। 
आचार्य भरतमुनी  हास्य के दो भेद मानते है -
                1.   अन्त्यस्थ - जहाँ विदूषक या पात्र स्वयं हंसता है। 
                2.   परस्थ - जहाँ विदूषक या पात्र दूसरों को हंसाता है। 
जैसे -  तंबूरा लिए मंच पर, बैठे प्रेमप्रताप 
          साज मिले पंद्रह मिनिट, घंटा भर आलाप 
          घंटा भर आलाप, फिर राग में मारा गोता 
          पर धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता 
          वह काका सम्मेलन में था सन्नाटा छाया 
          श्रोताओं में केवल हमको देखा पाया 

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