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टेलिव्हीजन नाटक

       वर्तमान में टेलिव्हीजन नाटक का कोई पक्का ढाँचा निखर नहीं पाया है। टी.व्ही. नाटक रंगमंच और फिल्म विधा के बीच की विधा मानी जा सकती है, जिसकी प्राणवत्ता उसकी सामाजिकता में है। आज टी.व्ही. सामूहिक मनोरंजन का चुनौतियों भरा माध्यम बन चुका है। मात्र यह नाटक अन्य नाटकों की तुलना में अत्यंत प्रभावशाली होते है। किन्तु इन नाटकों में चरित्रांकन, चिंतन एवं गति योजना मौलिक होनी चाहिए।
       बी.बी.सी के भूतपूर्व प्रस्तुतकर्ता डॉन टेलर के अनुसार टी.व्ही. नाटक में शैली के नाम पर यदि कुछ है तो फिल्म और रंगमंच का मिश्रण और कहानी की वेदी पर विचार तथा तर्क की अक्सर बलि दी जाती है। मगर युग मूल्यों और रीति-नीति को टेलिव्हीजन नाटक में ढाला जाता है, जो बडी ज़िम्मेदारी का काम है।
       इन नाटकों की संरचना में कैमरा की विशेष भूमिका होती है। किसी पात्र का एकालाप यहां केवल उसकी नज़रें झुकाने या केवल उसके एक क्लोज अप से दिखाया जा सकता है। वास्तव में टी.व्ही. नाटक कैमरा से दिखाई जानेवाली कहानी है। जिसमें कहानी की विशेष बातों को विशेष शॉट से उभारा जाता है। यह नाटक कहानी में स्वाभाविक रूप से उभरते दृश्यों के आधार पर निर्मित होता है। यहां रंगमंच की तुलना में संवाद कम होते है। किंतु अभिनेता की मुखाकृति बडा काम कर जाती है। अतः चित्रांकन और संकलन के बाद सुधार की गुंजाईश कम ही रहती है।
      टी.व्ही. नाटक न तो छपने के लिए लिखे जाते है, न किसी रंगशाला में बैठे दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुतीकरण हेतु, इसका प्रसारण उन अनगिनत दर्शकों के लिए होता है, जो घरों में बैठे हुए होते है।

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