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अलंकार के भेद

              अलंकारों के इतिहास पर दृष्टि डाले तो स्पष्ट होता है कि रुद्रट ने सर्वप्रथम अलंकारों के वर्गीकरण का प्रयास किया है। उन्होनें अलंकारों को वास्तव, औपम्य, श्लेष, अतिशय इन वर्गों में विभक्त किया।
             रुय्यक ने अलंकारों को सात वर्गों में बाटने का प्रयास किया - सादृश्य गर्भ, विरोध गर्भ, शृंखलाबद्ध, तर्क न्यायमूलक, काव्य न्यायमूलक, लोक न्यायमूलक, गूढ़ार्थ प्रतीतिमूलक।
               पंडितराज जगन्नाथ ने अलंकारों के तीन प्रकार माने है - शब्दालंकार, अर्थालंकार, उभयालंकार।
              शब्दालंकारों में अलंकार का सौंदर्य केवल किसी शब्द विशेष की ध्वनि और अर्थ पर आश्रित होती है, जो उस शब्द को बदल देने पर लुप्त हो जाता है। इसके विपरित अर्थालंकारों का संबध पुरे वाक्य के अर्थ से होता है। 

शब्दालंकार के भेद 
1.  अनुप्रास  
             जहाँ वाक्य में वर्णों की आवृत्ति एक से अधिक बार हों, चाहे उसमें स्वर समान न हों , वहां अनुप्रास शब्दालंकार होता है।  
               जैसे -  लपट से झट रुख ले - ले
                         दी घट सुख ले-ले

2.  यमक  
              जहाँ एक से अधिक शब्द एक से अधिक वर प्रयुक्त हो एवं उनका अर्थ भी प्रत्येक बार भिन्न हो , वहां यमक शब्दालंकार होता है।  
               जैसे -  कनक-कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय
                          वा खाये बौराय जग, वा पाए बौराय
यहां 'कनक' शब्द दो बार प्रयुक्त हुआ है और दोनों ही बार उसका अर्थ भिन्न ही है।  पहले का अर्थ धतूरा तो दूसरे का अर्थ सोना है।

3.  श्लेष  
              अर्थात चिपकना।  किसी शब्द का एक बार प्रयोग होने पर भी उनके अर्थ एक से अधिक हो।
             जैसे -  रहिमन पानी राखिये , बिन पानी सब सून
                      पानी गए न ऊबरै, मोती मानुस चून
यहां 'पानी' के तीन अर्थ है - चमक या ओज, इज्जत और जल के लिए।  मोती चमक के बिना, मनुष्य इज्जत के बिना और आटा पानी के बिना कोई महत्त्व नहीं रखता।  
4.  वक्रोक्ति
            वक्रोक्ति का तात्पर्य है - वक्र उक्ति या टेढ़ा कथन, कुटिल कथन।
            जैसे -   मैंने कहा उससे, " प्रिये जाओ मत, बैठो। "
                       वह भोली समझी, "प्रिये जाओ, मत बैठो। "



अर्थालंकार के भेद 
1.  उपमा 
              जब दो वस्तुओं में विशेष गुण या स्वभाव की समानता स्थापित की जाएं तथा एक वस्तु या प्राणी की तुलना किसी लोकप्रसिद्ध वस्तु के साथ की जाएं। अर्थात उपमेय की उपमान से रूप, गुण एवं आकार-प्रकार में समानता बताई जाएं , तब उपमा अर्थालंकार होता है।  
              जैसे - मुख चन्द्रमा-सा सुंदर।

2.  दृष्टांत  
             उपमेय और उपमान के साधारण धर्म का बिंब-प्रतिबिंब भाव दर्शित किया जाये तथा वाचक शब्द का उल्लेख न हो।  अर्थात उपमेय की उपमान से बिम्बात्मक समानता बताई जाए।
                 जैसे - पापी मनुज भी आज मुख से, राम नाम निकलतें
                         देखों भयंकर भेड़िये भी आज आंसू ढालते।

3.  रूपक 
              जब उपमेय में  उपमान का भिन्नता होते हुए भी निषेधरहित आरोप किया जाये, तो रूपक अलंकार होता है।
                  जैसे - जितने कष्ट कंटकों में है, जितना जीवन सुमन खिला
                           गौरव गंध उन्हें उतना ही, यत्र-तत्र सर्वत्र मिला।
यहां कष्ट पर काँटों का एवं जीवन पर पुष्प का, गौरव पर गंध का आरोप है। 

4.  उत्प्रेक्षा 
                     जब उपमेय में  उपमान की भिन्नता होते हुए भी सम्भावना की जाये, अर्थात एक वस्तु में दूसरी वस्तु की सम्भावना मात्र की जाये, तब उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
               जैसे - सोहत ओढ़े पीत-पट श्याम सलोने गात
                         मनहुं निलमणि सैल पर, आतप परयौ प्रभात।
यहां कृष्ण को नीलमणि पर्वत और पीतपट को प्रातः काल का आतप अर्थात धूप माना गया है।  

 5.  अतिशयोक्ति 
               जहाँ पर किसी वस्तु का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाये की लोक सीमा  उल्लंघन हो जाये, तो वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है। 
                  जैसे - पत्रा ही तिथि पाइये, वा घर के चहुँ पास 
                           नित प्रति पून्योई रहत, आनन ओप उजास 
नायिका की मुखमण्डल की आभा से उसके आसपास हर समय पूर्णमासी की चांदनी छिट की रहती है, ऐसी स्त्री का मिलना दुर्लभ है। 

6.  भ्रांतिमान 
             रूप, रंग आदि की समानता के कारण जहाँ एक वस्तु में अन्य किसी वस्तु की चमत्कारपूर्ण भ्रान्ति कल्पित हो जाये, वहां भ्रांतिमान अलंकार होता है।  अर्थात उपमेय में किसी उपमान की भ्रान्ति उत्पन्न की जाती है।
                जैसे - "ओस बिंदु चुग रही,हंसिनी मोती समझ।  "
यहां ओस की बूंदों में मोती का भ्रम पैदा किया गया है,  जो कवि कल्पित है।  

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