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अलंकार

          अलंकार का शाब्दिक अर्थ है- सुशोभित करने वाला या वह जिससे सुशोभित हुआ जाता है। काव्यशास्त्र में अलंकार इन दोनों ही अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। अलंकारों का प्रयोग गद्य-पद्य सभी में होता है। काव्य में अलंकारों के प्रयोग की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। काव्यशास्त्र के प्रवर्तन से बहुत पहले से अलंकारों का प्रयोग होने लगा था और अलंकार सिद्धांत अस्तित्व में आ चुका था। वेदों की भाषा का अध्ययन करने के लिए निरुक्त और निघंटु जैसी रचनाएं अस्तित्व में आई तथा अलंकार निरूपण की दिशा में प्रयत्न होने लगे।

अलंकारों का स्वरूप
            आचार्य भामह, आ.दंडी, आ.उद्भट, आ.रुद्रट अलंकार संप्रदाय के प्रमुख आचार्य और विवेचक है। आचार्य भामह इस संप्रदाय के विधिवत प्रवर्तक और विवेचक है इन्होंने काव्य में अलंकार की स्थिति आवश्यक रूप में स्वीकार की है। वक्रोक्ति को वह सब अलंकारों का मूल बीज स्वीकारते हैं। काव्य में अलंकारों का महत्त्व स्पष्ट करते हुए वह कहते है -" न कांतमपि निर्भूष विभाति वनिता मुखम् "। अर्थात वनिता (कविता) के स्वाभाविक सौंदर्य का अलंकारों के बिना कोई मूल्य नहीं है। आचार्य दंडी अलंकार को काव्य का शोभा कारक धर्म मानते है- " काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकरान प्रचक्षते "। तो आचार्य वामन सौंदर्य को ही अलंकार मानते है। उनके अनुसार तो अलंकारों से ही काव्य ग्राह्य होता है - " सौंदर्यमलंकार काव्य ग्राह्य मलंकरात्"
            आचार्य उद्भट ने वामन के मत की व्याख्या करते हुए गुण और अलंकार में कोई भेद नहीं माना है। आचार्य रुद्रट कथन की विशेष भंगिमा को अलंकार स्वीकारते हुए रस और अलंकार को एक दूसरे से अलग करते हैं। आचार्य महिम भट्ट ने गुण और अलंकार दोनों को पृथक-पृथक स्वीकारते हुए इन दोनों को ही काव्य में चारुता का हेतु माना है। आचार्य भोज भी रीति और गुण को अलंकारों के अंतर्गत मानते हैं।
            अतः स्पष्ट है कि इन आचार्यों ने अलंकार को काव्य का मात्र बाह्य उपकरण स्वीकार नहीं किया है। यह रस, गुण आदि काव्य के अंतरंग को पुष्ट करने वाले समस्त धर्मों, तत्वों का विकास अलंकारों से ही मानते हैं। जयदेव के अनुसार तो-  
  "अलंकरोतीयः काव्य शब्दार्थो वनलंकृती
    असौ न मन्यते कस्यादनुष्णमनलंकृति"।
             अर्थात जो अलंकार शून्य शब्दार्थ में भी काव्यत्व स्वीकार करते है, वे चतुर मनुष्य अग्नि में भी अनुष्णता को स्वीकार करें।
             आचार्य केशवदास का मानना है कि अलंकार काव्य को सरस बनाते है। उसके बिना काव्य का कोई महत्व नहीं। यथा -                    
           "जदपि सुजाति सुलच्छिनी सुबरन सरस सुवृत्त।  
    भूषण बिनु न बिराजई कविता,बनिता, मित्त"
            इन उक्तियों में अलंकार को काव्य का स्थिर एवं अनिवार्य तत्व माना गया है। जबकि आ.वामन, आ.मम्मट, आ.विश्वनाथ आदि आचार्यों ने इसका खंडन किया है मात्र इन उक्तियों से अलंकार के स्वरूप का स्पष्टीकरण नहीं होता
          आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने वाली युक्ति अलंकार है अलंकार वह निश्चल योजना है, जिसके अंतर्गत काव्य का स्वरूप, उसके विविध अंग, अंगों के प्रकरण, प्रकरणों के अंतर्गत कथा वर्णन, संवाद और इन सब में व्याप्त विशेष उद्देश्य की अभिव्यक्ति, सब आ जाते है

अलंकारों का काव्य में स्थान
           कोई सौंदर्यवती यदि आभूषण धारण करें, तो उसका प्राकृतिक सौंदर्य ओर अधिक निखर उठता है। ठीक वैसे ही कविता कामिनी अलंकार रूपी आभूषणों से अपने सौंदर्य को बढाती है। मात्र जिस तरह से योग्य स्थान पर योग्य आभूषण ही शोभा बढ़ाता है, तथा कुस्थान अरुचि को उत्पन करता है; वैसे ही अलंकार सही स्थान पर स्वाभाविक रूप से आने चाहिए। उक्ति वैचित्र्य या उक्ति चमत्कार अलंकार है। पर प्रश्न यह उठता है कि क्या काव्य में सर्वत्र यह तत्व अनिवार्य है? अलंकार वादी इसका उत्तर स्वीकारात्मक देते हैं, पर रसवादी आचार्य इसका उत्तर निषेधात्मक देते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी काव्य में हो रही अलंकारों की महत्ता के घोर समर्थन का विरोध करते है। शुक्ल जी के अनुसार अलंकार भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं की रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में सहायक होते है। यहाँ अलंकार का प्रयोग उसकी वैकल्पिकता सिद्ध करता है। रसवादी अलंकार की स्थिति सहायक के रूप में मानते हैं और अलंकार वादी उसके बिना काव्य सत्ता को स्वीकार नहीं करते। अलंकार वादियों की दृष्टि से अलंकारों का अर्थ व्यापक था। वह सौंदर्य प्रसारक तत्व को अलंकार मानते थे। इसमें रीतिजनित सौंदर्य भी समाविष्ट हो जाता है। अलंकारवादी आचार्यों के सामने रस की स्थिति पूरी तरह अस्पष्ट नहीं थी। सौंदर्य प्रसारक होने के कारण रस को भी अलंकारों के अंतर्गत माना गया था। आनंदवर्धन के समान उन्होंने अंगीभूत रस भाव, रसाभाव, भावा भास, भाव शांति को इन नामों से अभिहित न करते हुए रसवत, प्रेयस्वत, ऊर्जस्वी,समाहित अलंकार नाम दिए।  मात्र यह भी समझना होगा कि हर सौंदर्य प्रसारक अलंकार नहीं होती। कुछ वस्तुएं सौंदर्य प्रसारक होती है, कुछ सौंदर्य की जन्मदात्री और रस से सौंदर्य का प्रसार नहीं, जन्म होता है। 
            अलंकार मात्र सौंदर्य वृद्धि के साधन है, साध्य नहीं। काव्य के भाव पक्ष  और शैली पक्ष  दोनों के लिए ही अलंकार उपकारक है। अलंकार बाह्याभ्यन्तर दोनों में स्थित होते हुए भी काव्य में उसकी मुख्य स्थिति बाह्य ही होते है। अतः  इसे सर्वोपरि स्थान नहीं मिला। अलंकारों से काव्य में रमणीयता आती है ,भावोत्कर्ष में सहायता मिलती है। इसलिए कवि को सजग होना चाहिए कि उसके द्वारा प्रयुक्त अलंकार काव्य की भावाभिव्यक्ति में बाधक न बने।
             उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि अलंकारों का काव्य में महत्वपूर्ण स्थान है। अलंकारों से काव्य की शोभा में वृद्धि होती है। किन्तु उसकी सार्वभौम सत्ता स्वीकार नहीं की जा सकती।

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