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रस के अंग / अवयव / उपांग

इसके पूर्व हमने आ.भरतमुनि द्वारा प्रतिपादित रस की व्याख्या को देखा। जिसके अनुसार रस के अंगों के रूप में विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भावों के संयोग को लिया जाता है।
अ. स्थायी भाव
सह्रदय केह्रदय में जो मनोविकार वासना या संस्कार रूप में विद्यामान रहते है तथा कोई भी विरोधी या अविरोधी भाव जिन्हें दबा नहीं सकता, उसे स्थायी भाव कहते है।
स्थायी भाव की विशेषता निम्नानुसार है।
1.    स्थायीभाव रस का मूल है। आचार्य विश्वनाथ ने स्थायी भाव के रूप की तुलना करते हुए उसे अंकुर, कंद या मूल कहा है। स्थायी भाव ही वृक्ष के बीज के समान अंकुरित होकर रस रूप में परिणत होते  है।
2.    स्थायी भाव चित्त में चिरकाल निवास करते है। दूसरे भावों में इतनी स्थिरता नहीं होती। मूलतः ये मानव चित्त की भावनायें या संस्कार है, जो मनुष्य में सुप्तावस्था में होते है, ठीक वैसे जैसे मिट्टी की गंध, जो जल की बूंदें गिरते ही व्यक्त हो जाती है। इसी तरह सह्रदय के चित्त में वासना या संस्कार रूप में स्थित स्थायी भाव विभाव तथा अनुभाव के कारण जाग्रत होते है। 
3.    कोई विरोधी या अविरोधी भाव इनका तिरोभाव करने में अर्थात छिपाने में और विलिन करने में समर्थ नहीं होते। स्थायी भावों की संख्या 11 मानी गई है, जिनमें - रति, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा, निर्वेग, विस्मय, वात्सल्य और ईश्वर विषयक प्रेम आदि है।

 आ. विभाव  
विभाव अर्थात कारण। सह्रदय के ह्रदय में वासना या संस्कार रूप में  स्थित स्थायी भावों को उद्घोषित करनेवाले कारण विभाव कहलाते है। ये स्थायी भावों का विभावन करते है, उन्हें आस्वाद योग्य बनाते है। विभाव रस की उत्पत्ति के आधारभूत है। आचार्य विश्वनाथ कहते है, लोक या संसार में रति, हास, शोक आदि स्थायी भावों को जाग्रत करनेवाले होते है,वे जब काव्य, नाटक में वर्णित होते है,तब विभाव कहलाते है।
विभाव के दो भेद होते है।
1.    आलंबन विभाव -
भावों का उद्गम आश्रय में होता है। पर उनका संबंध किसी बाहय वस्तु से होता है, जो भावों को पैदा करते है। भावों का उद्गम जिस मुख्य भाव या वस्तु के कारण होता है ,वह काव्य में आलंबन है, जो भावों को जाग्रत करने का मुख्य कारण है। काव्य नाटकादि में जिन पात्रों का आलंबन कर सह्रदय के ह्रदय में स्थित रत्यादि भाव रस रूप में अभिव्यक्त होते है  उन्हें आलंबन विभाव कहते है।
आलंबन विभाव के दो अंग है - 1.विषय 2. आश्रय
जिस पात्र के प्रति किसी पात्र के मन में भाव जाग्रत होते है, वह विषय है और जिस पात्र में भाव जाग्रत होते है, वह आश्रय है। उदा. पुष्पवाटिका में सीता को देखकर राम के मन में रतिभाव जाग्रत हुआ। यहां सीता विषय है ओर राम आश्रय है। विषय और आश्रय सह्रदय के स्थायी भावों को रसात्मक स्थिति तक पहुंचाते है।
2.    उद्दीपन विभाव -
स्थायी भाव को जाग्रत रखने में सहायक कारण उद्दीपन विभाव कहलाते है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार जो रस को उद्दीप्त करते है अर्थात उद्दीपन करके स्थायी भावों को आलंबन योग्य बनाते है और इस प्रकार उन्हें रसावस्था तक पहुंचाते है, वे उद्दीपन विभाव है।
उद्दीपन विभाव के दो प्रकार होते है -
अ. आलंबनगत अर्थात आलंबन की उक्तियां और चेष्टाएं।
ब.  बाहय अर्थात वातावरण से संबंधित  वस्तुयें। प्राकृतिक दृश्यों की गणना भी इन्हीं के अंतर्गत होती है।
इन्हें क्रमशः विषयगत और बहिर्गत कहते है।

इ.अनुभाव
स्थायी भाव को व्यक्त करनेवाली आश्रय की चेष्टायें अनुभाव कहलाती है। ये चेष्टाएं भाव जाग्रति के बाद आश्रय में उत्पन्न होती है। इसलिए इन्हें  अनुभाव अर्थात जो भावों का अनुगमन करें कहा जाता है।जैसे की सिसकियां लेना, अश्रु ,स्वेद, रोमांच, अनुराग, क्रोध, शस्त्रसंचालन, कठोरवाणी आदि।
अनुभावों के चार भेद है - 1. आंगिक 2. वाचिक 3. आहार्या 4. सात्विक 
आश्रय की शरीर संबंधी चेष्टायें आंगिक या कायिक अनुभाव कही जाती है। प्रयत्नपूर्वक किए गए व्यंग्य व्यापार को वाचिक अनुभाव कहा जायेगा। तो आरोपित या कृत्रिम वेशभूषा को आहार्या अनुभाव कहते है। स्थायी भाव के जाग्रत होने पर स्वाभाविक, अकृत्रिम चेष्टाएं, अनायास अंगविकार को सात्विक अनुभाव कहते है। जिसके लिए आश्रय को किसी भी प्रकार की बाहय चेष्टायें नहीं करनी पडती। ये अपने आप होती है, इन्हें रोका नहीं जा सकता। 

ई. व्यभिचारी  या संचारी भाव -
जो भाव ह्रदय में नित्य विद्यमान होते है अर्थात स्थायी रूप से निवास करते है, उन्हें स्थायी भाव कहा जाता है। परंतु कुछ भाव ऐसे भी होते है,जो थोडी देर के लिए स्थायी भाव को पुष्ट करने के निमित्त सहायक रूप में आते है और लुप्त हो जाते है, इन्हें ही संचारी भाव कहा जाता है। संचारी का अर्थ होता है साथ -साथ चलना, संचारशील होना। ये स्थायी भावों के साथ संचारित होते है। ये प्रत्येक स्थायी भाव के साथ उसके अनुकूल बनके चलते है। अर्थात एक संचारी भाव अनके स्थायी भावों के साथ हो सकता है। इलिए इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहते है। भारतीय परंपरा के रसाचार्यों ने संचारी भावों की संख्या 33 मानी है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. हिंदी व्याकरण में रस को काव्य की आत्मा माना गया है, रस शब्द का अर्थ आनन्द है जब हम किसी काव्य को पढ़ते या सुनते है उस समय हमारे मन को जिस आनन्द की अनुभूति होती है उसे रस कहा जाता है मैं आपको इस रास के कितने अंग होते हैं पोस्ट को पढ़ने की सलाह देता हूं

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