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गीतिकाव्य

                भारतीय तथा पाश्चात्य साहित्य में गीतिकाव्य को स्वानुभूतिपरक काव्य के रूप में विश्लेषित किया जाता है। हिंदी में इसे गीत, प्रगीत तथा गीतिकाव्य की संज्ञा दी जाती है।  महादेवी वर्मा के अनुसार गीत व्यक्तिगत सीमा में तीव्र सुख-दुःखात्मक अनुभूति का वह शब्द रूप है जो ध्वन्यात्मकता में गेय हो सके। प्रगीत शब्द गीत में प्र उपसर्ग जोड़ कर बनाया गया है। मात्र गेय होने से ही वह काव्य नहीं बन सकता।  हरिवंशराय बच्चन के शब्दों में गीत वह है जिसमें भाव, विचार, अनुभूति, कल्पना एक शब्द में कथ्य की एकता और उसका एक ही प्रभाव पड़े। अंग्रेजी में इसे लिरिक कहा जाता है। भारत में गीतकाव्य की परंपरा वेदों से भी प्राचीन मानी गयी है।
            गीतिकाव्य के तत्व को निम्न रूप में देखा जा सकता है।
वैयक्तिकता

        गीतिकाव्य कवि की वैयक्तिक अनुभतियों का प्रकाशन है। जिसके कारण काव्य में निजी विशिष्टता,  मनोवेगों की तीव्रता, संवेदना की हार्दिकता, भावों की एकता, अनुभूति और अभिव्यक्ति की एकरूपता पाई जाती है।  उत्कट भाव कवि का संपूर्णतः निजी होना चाहिए। वह निजत्व ही वैयक्तिकता का समावेश करता है। वैयक्तिकता का अर्थ एक तो कवि की नितांत अर्थात व्यक्तिगत अनुभूति है , जो कवि द्वारा भोगे जा रहे प्रकृत या व्यावहारिक जीवन से प्राप्त होती है।  गीतिकाव्य के स्वरुप में वैयक्तिकता के लिए हडसन लिखाते है – ‘वैयक्तिकता की छाप गीतिकाव्य की सबसे बड़ी कसौटी है किन्तु वह व्यक्ति वैचित्र्य में सीमित न रहकर व्यापक मानवी भावनाओं पर आधारित होती है जिससे पाठक उसमें अभिव्यक्त भावनाओं से तादात्म्य स्थापित कर सके। 

भावप्रवणता 
            भावतत्व गीति की आत्मा है। किसी प्ररेणा के कारण दबे हुए भाव प्रस्फुटित होते है। इस कारण हार्दिकता का तत्व उसमे समाविष्ट हो जाता है। उत्कट भाव का ही गीति मे क्रमशः विकास दिखाया जाता है।

रागात्मक अनुभूति 
              रागात्मकता अर्थात प्रेममय, प्रीतिवर्धक ; तो अन्विति का तात्पर्य है परस्पर सम्बद्धता। भावान्विति तात्पर्य है जहाँ भावात्मकता और संवेगात्मक एकता हो। प्रेम मनुष्य जीवन की सबसे अनमोल धरोहर है। काव्य यही प्रेम सौन्दर्यानुभूति का कारक होता है। 
गेयता या संगीतात्मकता
              सुख-दुखात्मक अंतःप्रेरणाओं के भार से दबकर जब स्वर स्वतः फूट उटता है, तो उसमे ताल''लय का विधान प्रायःस्वतः ही हो जाता है।गेयता का अर्थ ताल-लय और स्वर के संधान से है। कोई विशेष प्रकार की राग-रागिनियो की योजना करना नही है।
सहज भाषा -शैली
             भाव के अनुकूल कोमल-कांत,ओजस्वी एवं सहज-स्फुटित भाषा का महत्व ही इसमें स्वीकार किया जाता है। सामान्यतः गीति में कठोर एवं कर्ण-कटु लगनेवाले वर्णो, शब्दों का प्रयोग वर्जित माना जाता है। वर्ण शब्द योजना भाव के अनुकूल रहनी चाहिए, जिससे वर्णित भाव के औदात्य की समग्रतः रक्षा संभव हो सके।

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