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रेडिओ नाटक

अन्य नाम - ध्वनि नाटक या ध्वनि रूपक
घटनाओं में पात्रों के संघर्ष, अभिनेताओं की आवाज़, संगीत, ध्वनि प्रभाव व माइक्रोफोन की तकनीक पर आधारित रेडिओ नाटक के कई भेद देखे जा सकते है। जिनमें - नाटक, रूपक, रूपांतर, फेंटेसी, मोनोलॉग, संगीत रूपक, झलकियां आदि।
      श्री.सत्येंद्र शरत् के अनुसार इसके भेद- नाटक, धारावाहिक नाटक या पारिवारिक श्रृंखला नाटक, कहानी, उपन्यास और रंग नाटक के रेडिओ रूपांतर, एक पात्रीय नाटक, पद्यनाटक या संगीत नाटक, फेंटेसी, रेडिओ फ़ीचर, हास्य नाटिकाए।
       परंपरागत नाट्य रचना के अतिरिक्त टेकनीक पर आधारित जो रचनायें सामने आ रही है, उसके विकास का श्रेय रेडिओ को है, जिसमें रंगमंचीय नाटकों की सीमा ने रेडिओ नाटक के लिए कई संभावनाएं शेष रखी।
       वर्तमान रेडिओ नाटकों पर नाट्य कला का भविष्य आधारित है। सिनेमा से अधिक रेडिओ स्टेशन पर नाटक अभिनीत हो रहे है। हिंदी में इन ध्वनि नाटकों का जन्म सन 1937 में रेडिओ से प्रसारित प्रथम हिंदी ध्वनि रूपक 'राधाकृष्ण' से हुआ। तब से अब तक रेडिओ नाटक की टेकनीक में पर्याप्त विकास हुआ है।
     श्रव्य नाटक जो ध्वनि आधारित होते है। रेडिओ नाटक की कथा, दृश्य विधान और संवाद ध्वनि पर ही आधारित होते है। रंगमंचीय नाटक में अभिनय द्वारा उत्पन्न प्रभाव यहां ध्वनि से संभव है। ध्वनि के माध्यम से ही वातावरण, वेषभूषा, दृश्य सजावट, पात्र की स्थिति का ज्ञान श्रोता को करवाया जाता है। पात्र के आंतरिक संघर्ष को भी ध्वनि द्वारा ही व्यक्त किया जाता है। शब्द ध्वनि अर्थात उच्चारण की शैली रेडिओ नाटक में महत्वपूर्ण होती है। साथ ही वाद्य ध्वनि और प्रभाव ध्वनि का भी विशेष महत्त्व होता है. जो पात्रों का प्रवेश-प्रस्थान, अंतर, उनकी मनोदशा तथा वातावरण को उभारती है।
      रेडिओ नाटकों में संवाद तथा घटनाओं का वर्णन संक्षिप्त होता है। इसमें घटनाओं की प्रमुखता होती है। इस नाटक के तत्व के रूप में - ध्वनि प्रधान संवाद , विस्तार, कथावस्तु, पात्र, संगीत, स्वगत भाषण, अभिनय, वातावरण आदि को देखा जा सकता है। मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए आवश्यकतानुसार ध्वनियों के उतार-चढाव का प्रयोग किया जाता है। ध्वनि नाटक का सारा कार्य वाचिक अभिनय द्वारा संभव होता है। यथासंभव संगीत की भूमिका महत्वपूर्ण सिद्ध होती है, मात्र बाह्य रंगसज्जा की इन नाटकों में आवश्यकता नहीं।
      डॉ. दशरथ ओझा ने ध्वनि नाटकों के निम्नप्रकार माने है -रेडिओ रूपक या ध्वनि रूपक, रेडिओ फ़ीचर, नाट्य, फेंटेसी। कुछ विद्वान इसे मोनोलॉग, संगीत रूपक नाम भी देते है।
वर्तमान तक हिंदी में रेडिओ नाटकों का पर्याप्त विकास हुआ है। डॉ. रामकुमार वर्मा, उदयशंकर भट्ट, विष्णु प्रभाकर, रेवतीशरण शर्मा, भगवतीचरण वर्मा, उपेंद्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर से लेकर अज्ञेय तक के प्रतिभाशाली रचनाकारों ने इस विधा के विकास में अपना योगदान दिया है।

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