साहित्य को ठीक से समझने के लिए लक्षणों के साथ-साथ उसके प्रमुख तत्वों की
पहचान भी आवश्यक है। भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य के स्वरूप
के संबंध में उसके तत्वों का भी उल्लेख किया है। काव्य बनाने के लिए, उसका
अस्तित्व सिद्ध करने के लिए जो तत्व होते हैं; उन्हें ही काव्य के तत्व
कहा जाता है। काव्य के यह अनिवार्य तत्व है। अतः इन्हें मूलभूत तत्व भी कहा
जाएगा।
काव्य में एक विशिष्ट प्रकार का भाव होता है; इस भाव को ठीक से परखने
वाला, सोचने वाला एक विचार होता है; इसे सजाने वाला भी एक तत्व होता है तथा
इसे प्रकट करने वाला भी एक तत्व होता है। इन सभी का मिला हुआ जो रूप तैयार
होता है, उसे ही काव्य के तत्व कहा जाएगा। इस आधार पर काव्य के तत्व निम्न
अनुसार है -
१. भाव तत्व -
भाव तत्व साहित्य में सबसे अधिक प्रभाव उत्पन्न करने वाला साहित्य का
प्राण तत्व है। भाव ही कवि की कल्पना का प्रेरक है। भाव के आधार पर ही
कविता आकार ग्रहण करती है। भाव जितना अच्छा होगा, कविता उतनी अच्छी होती
है। इसलिए कविता का प्रभाव, उसका महत्व भाव तत्व पर निर्भर होता है।
संस्कृत आचार्यों ने काव्य में भावों को जीवंत तत्व माना है भाव ही काव्य
को शक्ति प्रदान करते हैं
भाव तत्व के कारण साहित्य को शास्त्र से पृथक माना जाता है। साहित्य की
सरसता का आधार भाव तत्व ही होता है। चित्त की स्थायी और अस्थायी वृत्तियों
का नाम भाव है। भावतत्व साहित्य की प्रभावात्मकता और संप्रेषणीयता का आधार
है। भाव विचारों की अपेक्षा अधिक संप्रेषणशील होते है। इसलिए साहित्य का
विचार तत्व भी भाव तत्व द्वारा नियंत्रित होता है। भाव कविता का आधार,
कविता की शक्ति तो है; लेकिन काव्य को संपूर्ण रूप से प्रभावी बनाने के लिए
भावों में विविधता का होना आवश्यक है। विविधता के कारण ही काव्य एकरस होने
से बचता है। इतना ही नहीं अंत तक काव्य प्रभावी बनाने के लिए भी भावों में
विविधता का होना आवश्यक है।
विविधता के साथ ही काव्य का उदात्त होना आवश्यक है। काव्य के जितने भी भाव
होते हैं, वह सस्ते मनोरंजन के लिए नहीं होते। भावों का स्थाई प्रभाव होना
चाहिए। इसीलिए भावों का उदात्त होना आवश्यक है। उदात्तता के कारण ही काव्य
भव्य-दिव्य बनता है। भावों में निरंतरता का गुण भी होना चाहिए, जिसके कारण
पाठक साहित्य को आद्योपांत पढ़े। भाव जितने मौलिक होते हैं, काव्य उतना ही
उत्कृष्ट और प्रभावी होता है। काव्य को सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए भावों का
मौलिक होना आवश्यक है।
वैसे भावाभिव्यक्ति चाहे कितनी ही सशक्त या सुंदर हो, उसी आधार पर वह
साहित्य नहीं कहलाती है। निरीभावाभिव्यक्ति, निरंकुश भावाभिव्यक्ति साहित्य
को असुंदर तथा अहितकर बना देती है। तात्पर्य यही कि भाव भी बुद्धि द्वारा
नियंत्रित होते है। स्पष्ट है कि, भावों की प्रभावात्मकता तथा संक्रमकता
जहां एक ओर उसकी प्रासंगिकता पर अर्थात स्वानुभव पर निर्भर है, तो दूसरी ओर
उसके बुद्धि द्वारा नियंत्रित होने पर भी।
भाव तत्व साहित्य का अभिन्न तथा अनिवार्य तत्व जरूर है, लेकिन उसकी स्थिति
साहित्य की विभिन्न विधाओं में समान रूप से नहीं है। प्रगीत में यह
अत्याधिक प्रखर रूप में अभिव्यक्त होता है। युगीन परिवेश तथा विशेष मताग्रह
का असर भी भाव तत्व की स्थिति पर होता है।
प्रारंभ से साहित्य का प्रयोजन मात्र रसास्वादन या आनंद नहीं रहा है।
इसलिए आज भाव तत्व के साथ विचार तत्व की मात्रा पहले से अधिक बढ़ती देखी जा
सकती है।
२. विचार तत्व या बुद्धि तत्व
विचार तत्व का महत्व इसी में है कि भाव, कल्पना आदि का ठीक संयोजन और शब्द का प्रयोग औचित्यपूर्ण हो। औचित्य के बिना विश्वसनीयता और
प्रभाव नष्ट हो जाते हैं। भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने इस तत्व को
महत्वपूर्ण माना है। विचार तत्व का संबंध अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों से
है। बुद्धि तत्व के आधार पर ही काव्य में विचार लाए जाते हैं। बुद्धि तत्व
का संबंध विचारों और तत्वों से है। प्रत्येक साहित्य में किसी न किसी
मात्रा में तथ्यों, विचारों और सिद्धांतों का समावेश किया जाता है। बुद्धि
तत्व के आधार पर काव्य में विशिष्ट विचारों का निर्माण किया जाता है।
इन्हीं विचारों के आधार पर व्यक्ति मन तथा समाज मन संस्कारित किए जाते हैं।
अतः साहित्य में वस्तुओं और घटनाओं का चित्रण उसके उचित रूप में ही किया
जाता है। प्रमुखतया इसका स्वरूप कथा संगठन, चरित्र चित्रण और भाव निरूपण के
क्षेत्र में देखा जा सकता है।
कथावस्तु की सुक्ष्म रेखाओं के निर्माण के लिए अर्थात घटनाओं का चुनाव
करना घटनाओं को संग्रहित करना की उसका यथेष्ट प्रभाव पडे और कर्म के अनुरूप
फल दिखाने के लिए बुद्धि तत्व का प्रयोग किया जाता है। इस तत्व के कारण
भावनाओं पर अंकुश रखा जाता है। बुद्धि तत्व में ऐसे विचारों की अपेक्षा की
जाती है, जो दार्शनिक की तरह सत्य का निर्माण करने वाला हो। इसी सत्य के
कारण यह विचार काल की मर्यादा के परे होते है। फिर भी इस प्रश्न पर विचार
करना आवश्यक है कि साहित्य में विचारों का क्या महत्व है? विचारों का
चित्रण उसी सीमा तक ग्राह्य माना जा सकता है, जहां वे रचना के भाव सौंदर्य
में बाधक न बने। भावशून्य विचारों का वर्णन साहित्य को उसकी विशिष्ट उपाधि
से वंचित करके दर्शन नीतिशास्त्र या उपदेश ग्रंथ का रूप प्रदान कर देता है।
जिस तरह विचार तत्व भाव तत्व को निरी भावुकता तथा निरर्थक प्रलाप होने से
बचाता है; उसे आधारभूमि प्रदान कर उन्हें व्यवस्थित बनाकर अभिव्यक्तिक्षम
एवं संप्रेषणीय बनाता है; उसी प्रकार भाव तत्व विचार तत्व को शुष्क बौद्धिक
होने से बचा कर उन्हें सहज ग्राह्य और प्रभावी बनाता है। अतः स्पष्ट है कि
निरंकुश भावाभिव्यक्ति मात्र प्रलाप बन जाती है, साहित्य नहीं। वैसे ही
मात्र विचारों की अभिव्यक्ति बोझिल पांडित्य प्रदर्शन मात्र बन जाती है,
साहित्य नहीं। इसी कारण भाव और विचारों का तादात्म्य साहित्य के लिए
अनिवार्य होता है।
३. कल्पना तत्व
साहित्य में भावनाओं का चित्रण कल्पना के द्वारा ही संभव है। इसी कल्पना
के कारण कवि औरों के सुख-दुख और दूसरों की अनुभूतियों का चित्रण इस प्रकार
कर देता है कि वह हमारा सुख दुख बन जाता है। वह परोक्ष की घटना को
प्रत्यक्ष रूप में, अतीत की घटना को वर्तमान में और सूक्ष्म भावों को स्थूल
रूप में प्रस्तुत कर देता है। इसका श्रेय उसकी कल्पना शक्ति को ही है।
काव्य में सौंदर्य और चमत्कार की सृष्टि भी कल्पना के द्वारा ही संभव है।
वस्तुतः प्रत्येक युग और प्रत्येक भाषा का साहित्य कल्पना शक्ति की अपूर्व
क्षमता, उसके द्वारा निर्मित वैभाव और अलौकिक चमत्कार की कहानियों से भरा
पड़ा है। साहित्यकार की क्षमता असत्य को सत्य में स्थूल को सूक्ष्म में
लौकिक को अलौकिक में परिवर्तित करने की विशेष शक्ति से संपन्न होती है।
लेखक की कल्पना विषय की समुचित अवधारणा, तदनुरूप कथानक एवं घटनाएं गढ़ती
है, पात्रों का चरित्र गढती है, उसका नामकरण करती है, संवादों के लिए भाषा
का चुनाव करती है और अनुरूप वातावरण बनाती है। कलाकार इसकी सहायता से बाह्य
जगत को अधिकपूर्ण एवं सुंदर बनाकर प्रस्तुत करता है।
साहित्य का केंद्रीय तत्व भाव है और कल्पना उसे प्रभावी रूप प्रदान करती
है। परंतु कल्पना कभी-कभी भाव से भी अपनी शक्ति को सशक्त बनाकर स्वतंत्र
रूप में प्रदर्शन करने लगती है; तब साहित्य का सौंदर्य नष्ट हो जाता है।
भावशून्य कल्पना से साहित्य कोरा चमत्कार ही बन कर रह जाता है बिहारी के
वियोग श्रृंगार से संबंधित दोहे इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किए जा
सकते हैं। वास्तव में कल्पना का प्रयोग भावना के सार्थक चित्रण में होना
चाहिए अन्यथा उसका अपना कोई स्वतंत्र महत्व नहीं है।
४. शैली तत्व
काव्य के कला पक्ष से संबंधित इस तत्व को 'शब्द तत्व'
भी कहा जाता है। रचनाकार जिस भाषा, जिस रूप और जिस पद्धति से अपनी अनुभूति
को अभिव्यंजित करता है, उसे शैली कहा जाता है। इसके अंतर्गत भाषा, शब्द
चयन, अलंकारों का प्रयोग, शब्द का उपयोग, साहित्य स्वरूप आदि का समावेश
होता है। इस तत्व को अधिकांश भारतीय विद्वान शरीर तत्व के रूप में
परिभाषित करते है। इस तत्व का आधार भाषा है। अतः इसे भाषिक संरचना भी कहा
गया है। शैली काव्य के बाह्य अंग से संबंधित होती है। जिस प्रकार शरीर के
अभाव में प्राण का अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार भाषा के अभाव में
साहित्य की कल्पना संभव नहीं है। सर्वोत्कृष्ट साहित्य वह है, जिसमें भाव
पक्ष व शैली पक्ष दोनों में अद्भुत समन्वय हो। किंतु जब कविगण मात्र शैली
पर ही ध्यान केंद्रित करता है और भाव पक्ष का विस्मरण कर बैठता है, तो
काव्यत्व क्षीण हो जाता है।
उपर्युक्त साहित्य के तत्वों का सूक्ष्मता से अध्ययन करने के उपरांत
स्पष्ट होता है, कि साहित्य के तत्व किसी जड़ वस्तु के अंगों के समान
अलग-अलग नहीं होते; बल्कि एक दूसरे के साथ इस तरह मिले हुए होते हैं कि
इनको अलग-अलग करना संभव नहीं होता। भाव, विचार, कल्पना, शैली का संगठित
रूप साहित्य होता है। युगीन परिवेश और विशेष मताग्रह के अनुरूप इन तत्वों
में से किसी एक तत्व की व्याप्ति बढ़ जाती हुई दिखाई देती है। विधा विशेष
के अनुरूप किसी विशेष मत की प्रधानता हो जाती है। फिर भी अन्य तत्व भी
कम-अधिक मात्रा में प्रत्येक साहित्य में विद्यमान होते है।
धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट लेखन
जवाब देंहटाएंअति उत्तम लेख
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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